Women’s Equality Day – 25 august 2022
women equality day : – कहते हैं उड़ान हौसलों की होती है। कहते यह भी हैं कि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। लेकिन ये सारा कहना-सुनना तब असल जिंदगी में रंग लाता है जब आशा की किरण अपनी चमक से सबको रौशन करने लगती है। आसान नहीं होता दर्द, तकलीफ, हादसों और सवालों से ऊपर उठ पाना लेकिन जो इनसे लड़कर ऊपर उठता है उसे फिर कोई वापस नीचे लाने की जुर्रत नहीं कर पाता। एक ऐसी ही आशा की किरण हैं, किरण कन्नौजिया।
अभी 30 वर्ष की भी नहीं हुई है यह लड़की लेकिन इसने कुछ ऐसा कर दिखाया जो मिसाल बन गया। भारत की पहली महिला ब्लेड रनर। जानते हैं ब्लेड रनर कौन कहलाते हैं, ये वे बहादुर हैं जिनके लिए शरीर से अधिक आत्मा की इच्छाशक्ति मायने रखती है। जो ब्लेडनुमा नकली पैरों के सहारे उम्मीदों की दौड़ लगाते हैं।
इसलिए शारीरिक कमी-बेशी के आगे के रास्ते ये चुनते हैं। ठीक जैसे किरण ने चुना। अपना एक पैर खो देने के बावजूद किरण ने उड़ान भरी, सशक्त उड़ान, इरादों की उड़ान। उसने अपने सामने आई चुनौती का डटकर मुकाबला किया और जता दिया कि मुश्किलें कितनी भी आएं, हार मानकर बैठ जाना उनकी फितरत नहीं।
संघर्ष भरी शुरुआत : Women Equality Day
जब जीवन सामान्य होता है तब आने वाले खतरे को लेकर कोई भी नहीं सोचता। बल्कि उस समय हर व्यक्ति अपने सुनहरे भविष्य के बारे में सोच रहा होता है। एक अति सामान्य परिवार से ताल्लुक रखने वाली किरण कन्नोजिया ने भी यही सब सोचा था। उनके माता-पिता के छोटे से इस्त्री के ठेले पर चाहे साधन छोटे और कम रहे हों लेकिन किरण के बड़े इरादों का उजाला उन्हें प्रसन्नचित्त बनाये रखने के लिए काफी था।
बचपन से पढ़ाई-लिखाई में होनहार किरण को कुछ अच्छे इंसानों ने मदद की और पढ़ाई के बाद वे एक मल्टीनेशनल कम्पनी में नौकरी के लिए चुन ली गईं।ज़िंदगी मेहरबान थी और किरण अपने मजबूत इरादों के साथ जॉब में भी अच्छा प्रदर्शन कर आगे बढ़ रही थीं।
मुसीबत और हादसा – Kiran marathon runner
लेकिन जीवन जब सीधे सपाट रास्तों पर चलता है, तब ही दुर्घटना के होने की आशंका सबसे अधिक होती है और यही किरण के साथ भी हुआ। एक छुट्टी के दौरान अपने परिवार के पास लौटते हुए कुछ बदमाशों ने चलती ट्रेन में उनसे सामान लूटने की कोशिश की और इस अप्रत्याशित हमले में किरण चलती ट्रेन के नीचे आकर अपना बायां पैर खो बैठीं।
कुछ समय तो न पैर के होने का एहसास था न ही भविष्य के सुखद होने का। लेकिन कुछ महीनों बाद किरण ने फिर से अपने भीतर के उजाले को समेटा और आगे कदम बढ़ाने का निर्णय लिया। पैर भले ही नहीं था लेकिन हौसले तो बाकी थे। उन्होंने दौड़ने का इरादा बनाया। बस यहीं से ज़िंदगी ने फिर से करवट ली और किरण के सपनों ने बादलों की राह पकड़ ली।
मैराथन से प्रतियोगिताओं तक
पहले साधारण प्रोस्थेटिक (नकली) पैर से कोशिश की। जाहिर है तकलीफ और दर्द बहुत था लेकिन इस दर्द ने ही हिम्मत और बढ़ाई तथा किरण दौड़ने लगीं। इस प्रयास में सहभागी बने दक्षिण रिहैब सेंटर के कार्यकर्ता और परामर्शदाता। यहीं एक दिन किरण को ब्लेड यानी वजन में हल्के और बेहद उन्नत तकनीक से बने पैर का उपयोग करने की सलाह मिली।
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इस तरह के पैरों का उपयोग कई एथलीट्स अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किया करते हैं और इस नए पैर ने किरण की दौड़ को उड़ान में बदल डाला। आज किरण न केवल मैराथन दौड़ती हैं, बल्कि सामान्य प्रतियोगियों के साथ मैराथन में भाग लेती हैं और मैडल्स भी जीतती हैं। उन्हें आगे पैरालम्पिक खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व करने की इच्छा है और इस इच्छा को भी वह अपने हौसलों के दम पर पूरा जरूर कर दिखाएंगी ऐसा उनका विश्वास भी है और हमारा भी।